Thursday, 30 May 2013

दरिद्रता-नाशक तथा धन-सम्पत्ति-दायक स्तोत्र

दरिद्रता-नाशक तथा धन-सम्पत्ति-दायक स्तोत्र
|| दरिद्रता-नाशक तथा धन-सम्पत्ति-दायक स्तोत्र ||

भगवान् शिव के तीन नेत्र हैं। मस्तक पर चन्द्रमा का मुकुट शोभायमान है। जटाजूट कुछ-कुछ पीला हो रहा है। सर्पों के हार से उनकी शोभा बढ़ रही है। उनके कण्ठ में नीला चिह्न है। उमके हाथ में वरद तथा दूसरे हाथ में अभय-मुद्रा है। वे व्याघ्र-चर्म पहने रत्नमय सिंहासन पर विराजमान हैं। उनके वाम भाग में भगवती उमा का चिन्तन करे।

इस प्रकार युगल दम्पति का ध्यान करके उनकी मानसिक पूजा करे। इसके बाद सिंहासन पर स्थित महादेवजी का पूजन करे। पूजा के आरम्भ में एकाग्रचित्त हो संकल्प पढ़े। तदनन्तर हाथ जोड़कर मन-ही-मन उनका आह्वान करे-’ हे भगवान् शंकर ! आप ऋण, पातक, दुर्भाग्य आदि की निवृत्ति के लिये मुझ पर प्रसन्न हों।’ इसके पश्चात् गिरिजापति की प्रार्थना इस प्रकार करे-

जय देव जगन्नाथ, जय शंकर शाश्वत। जय सर्व-सुराध्यक्ष, जय सर्व-सुरार्चित ! ।।
जय सर्व-गुणातीत, जय सर्व-वर-प्रद ! जय नित्य-निराधार, जय विश्वम्भराव्यय ! ।।
जय विश्वैक-वेद्येश, जय नागेन्द्र-भूषण ! जय गौरी-पते शम्भो, जय चन्द्रार्ध-शेखर ! ।।
जय कोट्यर्क-संकाश, जयानन्त-गुणाश्रय ! जय रुद्र-विरुपाक्ष, जय चिन्त्य-निरञ्जन ! ।।

जय नाथ कृपा-सिन्धो, जय भक्तार्त्ति-भञ्जन ! जय दुस्तर-संसार-सागरोत्तारण-प्रभो ! ।।
प्रसीद मे महा-भाग, संसारार्त्तस्य खिद्यतः। सर्व-पाप-भयं हृत्वा, रक्ष मां परमेश्वर ! ।।
महा-दारिद्रय-मग्नस्य, महा-पाप-हृतस्य च। महा-शोक-विनष्टस्य, महा-रोगातुरस्य च।।
ऋणभार-परीत्तस्य, दह्यमानस्य कर्मभिः। ग्रहैः प्रपीड्यमानस्य, प्रसीद मम शंकर ! ।।
(स्क॰ पु॰ ब्रा॰ ब्रह्मो॰ ७।५९-६६)

फल-श्रुतिः
दारिद्रयः प्रार्थयेदेवं, पूजान्ते गिरिजा-पतिम्। अर्थाढ्यो वापि राजा वा, प्रार्थयेद् देवमीश्वरम्।।
दीर्घमायुः सदाऽऽरोग्यं, कोष-वृद्धिर्बलोन्नतिः। ममास्तु नित्यमानन्दः, प्रसादात् तव शंकर ! ।।
शत्रवः संक्षयं यान्तु, प्रसीदन्तु मम गुहाः। नश्यन्तु दस्यवः राष्ट्रे, जनाः सन्तुं निरापदाः।।
दुर्भिक्षमरि-सन्तापाः, शमं यान्तु मही-तले। सर्व-शस्य समृद्धिनां, भूयात् सुख-मया दिशः।।

और कोई विधि-विधान न बन सके तो श्रद्धा-विश्वास-पूर्वक केवल उपर्युक्त स्तोत्र का प्रतिदिन पाठ करे।

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